मेरी अविस्मरणीय हिमाचल यात्रा .....

 हिमाचल भ्रमण 2014 का पूरा समूह, अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम, धर्मशाला 




श्री गणेशाय नमः


यह यात्रा विवरण सन 2014 मे पड़े ग्रीष्म कालीन अवकाश का है | ग्रीष्म कालीन छुट्टियाँ पड़ने वाली थीं | घर में बच्चों सहित सभी बेहद उत्साहित थे, वजह थी हर वर्ष की भांति इस बार भी छुट्टियों में कहीं घूमने जाना |

इस वर्ष हमारा कार्यक्रम हिमाचल प्रदेश घूमने का था | घर के बच्चे एवं बड़े सभी इस बात को जानते थे | हमारे भ्रमण की एक प्रमुख विशेषता यह होती है कि इसमे हमारे परिवारों के अधिकतर सदस्य शामिल रहते हैं| समूह के सदस्यों में नवजात शिशु से लेकर अति बुजुर्ग लोग जैसे दादा दादी, नाना नानी, तक शामिल रहते हैं | कहने का तात्पर्य यह कि समूह में शून्य जीवन अनुभव से लेकर बात बात में अपने जीवन अनुभव कि बात बताकर सीख देने वाले लोग |

हमने अपने प्रिय मित्रगणों के साथ बैठकर यात्रा का कार्यक्रम एवं तिथि निश्चित की, एवं सर्वसम्मति से 19 जून 2014  का दिन निर्धारित किया गया | रेलगाड़ी के सभी आरक्षण समय से करा लिए गए | सभी परिवार अपनी अपनी यात्रा तैयारियों में जुट गए थे | हम सभी मित्रों का कुछ समय कार्यालय मे यात्रा संबन्धित बातें करने में ही गुजरता था |

आखिरकार 19 जून 2014 की वह तिथि आ ही गयी | 19 जून को हमारी रेलगाड़ी का समय रात्री के 1:30 बजे था | रेलगाड़ी का नाम मालवा सुपरफास्ट एक्सप्रेस था जो इंदोर से चलकर आगरा होते हुये जम्मू तवी तक जाती है | चूंकि रेलगाड़ी का समय रात्री 1:30 बजे था अतः हमें 18 जून की देर रात्री को ही रेलवे स्टेशन पहुँचना था |

सुबह से ही तैयारियां हो रही थीं, कोई समान पैक कर रहा था, कोई नाई की दुकान की दौड़ लगा रहा था, तो कोई बाज़ार की ओर, और महिलाएं साज सज्जा के अपने कार्यों मेँ व्यस्त थीं | बच्चे इसमें व्यस्त थे कि उन्हे क्या पहनना है आदि आदि, कुल मिला कर सभी का उत्साह चरम पर था | यात्रा में कुल पाँच परिवार शामिल थे | सर्वप्रथम हम लोग रात्री 11 बजे आगरा छावनी रेलवे स्टेशन पहुंचे, तदोपरांत एक एक कर समूह के अन्य सदस्य परिवारों सहित आ पहुंचे | सभी एक दूसरे से मिल कर अत्यंत प्रसन्न हो रहे थे | प्लेटफॉर्म नंबर 2 पर स्थिति यह थी कि बच्चे एक साथ मिलकर धमाचौकड़ी मचा रहे थे, महिलाएं एक दूसरे से वार्तालाप में व्यस्त थीं, तो बुजुर्ग लोग बार बार यह कहते हुये नहीं थक रहे थे कि हमारे बच्चे बहुत लायक हैं जिससे हमें तीर्थ यात्रा पर जाने का सौभाग्य मिल रहा है |

तभी रेलवे स्टेशन पर हो रही सूचना उद्घोषणा से यह पता चला कि हमारी रेलगाड़ी करीब 35 मिनट विलंब से है और रात्री 2 बजे आएगी | इस उद्घोषणा से बच्चों में क्षणिक रूप से निराशा आ गयी क्योंकि रेलगाड़ी में बैठने कि जल्दी जो थी | परंतु यात्रा उत्साह इस रूप से हावी था कि यह निराशा क्षण भर में छूमंतर हो गयी | रात्री 2 बजे रेलगाड़ी आगमन की उद्घोषणा के साथ ही सभी के चेहरे खिल उठे | सभी ने अपने अपने सामान हाथ में उठा लिए एवं रेलगाड़ी आने पर सभी ने पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार अपनी अपनी शायिकाएं ग्रहण की | रात्री अधिक होने के कारण यात्रा उत्साह के ज्वार पर निद्रा भारी पड़ने लगी एवं समूह के अधिकतर सदस्य गहरी निद्रा में चले गए | 

हमारा गंतव्य रेलवे स्टेशन पठानकोट छावनी (पूर्ववर्ती चक्की बैंक) था, जहाँ रेलगाड़ी के पहुँचने का समय अपराहन 1:30 बजे था | रेलगाड़ी विलंब से थी अतः 19/06/2014 अपराहन 2:30 बजे हम पठानकोट छावनी पहुँच गए | हिमाचल प्रदेश पहुँचने के लिए हमारी आगे की यात्रा पठानकोट रेलवे जंक्शन से थी | पठानकोट छावनी से हम लोग तीन ऑटो सवारी गाड़ियों द्वारा पठानकोट जंक्शन रेलवे स्टेशन पहुंचे |

चूंकि पठानकोट से पर्वत श्रंखलायें दिखाई देनी शुरू हो जाती हैं अतः सभी लोग इन्हे देखकर आनंदित हो रहे थे | पठानकोट जंक्शन स्टेशन कांगडा घाटी रेलवे का प्रारम्भिक रेलवे स्टेशन है | कांगड़ा घाटी रेलवे की स्थापना सन 1926 में ब्रिटिश शाशन के दौरान, पंजाब प्रांत के पन विधुत शक्ति गृह की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए की गयी थी | यह पठानकोट जंक्शन से शुरू हो कर जोगिंदर नगर तक जाती है | यह रेलवे लाइन अमान अर्थात नैरो गेज है एवं इसकी लंबाई कुल 164 किलोमीटर है | यह परियोजना 02 मई 1926 को शुरू हुई और 01 अप्रैल 1926 को सामान्य यातायात के लिए शुरू कर दी गयी | इस योजना पर कुल 2,72,21300/-  रुपए खर्च हुये |

हमारी अगली यात्रा में हमें कांगड़ा मंदिर रेलवे स्टेशन पहुँचना था, जो की कांगड़ा घाटी रेलवे का एक प्रमुख रेलवे स्टेशन है | इसकी पठानकोट से दूरी करीब 90 किलोमीटर है | पठानकोट जंक्शन से कांगड़ा मंदिर स्टेशन के लिए हमारी ट्रेन अपराहन 03:55 बजे थी | हम सभी लोगों ने झटपट यात्रा टिकिट खरीदा एवं उस प्लेटफार्म की ओर बढ चले जहाँ हमारी रेलगाड़ी पहले से खड़ी थी | इस रेलगाड़ी को प्रथम द्रष्ट्या देखकर ही सभी लोग रोमांचित हो उठे | कुल चार पाँच छोटे डिब्बों वाली इस रेलगाड़ी को देखकर मानो बचपन की छुक छुक रेलगाड़ी याद आ गयी | सभी लोग चपलता के साथ रेलगाड़ी की ओर बढ़ चले और अपनी अपनी सीट ग्रहण की |

कुछ ही समय बाद पहाड़ों की रानी ने अपने निर्धारित समय से सीटी बजाई एवं चल पड़ी पहाड़ों के रोमांच भरे सफर पर | पठानकोट से निकलने के बाद से ही हिमाचल प्रदेश की प्रसिद्ध गोल गोल पत्थरों वाली नदियां एवं पहाड़ दिखाई देने लगे | मौसम थोड़ा गरम था परंतु यात्रा आगे बढ़ने के साथ ही मौसम में ठंडक आने लगी मानो मौसम का देवता भी हमारे साथ यात्रा कर रहा था और हमारी मनः स्थिति से अवगत था | कांगड़ा मंदिर स्टेशन पहुँचने का समय रात्री 08:30 बजे था | इस यात्रा के दौरान अनेक छोटे छोटे रेलवे स्टेशन हमारी आनंदमयी यात्रा का गवाह बने, क्योंकि इन स्टेशनों पर रेलगाड़ी के क्षणिक ठहराव में भी हम यहाँ की पारंपरिक खाने पीने की चीजें खरीदना नहीं भूल रहे थे |

रेलगाड़ी की खिड़की से झाँकने पर जब पूरी रेलगाड़ी घूमती हुई दिखाई देती एवं पहाड़ों के बीच स्थित सुरंगों से गुजरती हुई जब सीटी बजाती तो छोटे बच्चों सहित सभी लोग रोमांचित हो उठते थे | पूरा हिमाचल प्रदेश ही नैसर्गिक प्राक्रतिक सौन्दर्य का धनी है, यहाँ देखकर लगा कि यूं ही इस प्रदेश को देव भूमि नहीं कहते |

रात्री 08:30 बजे हम कांगड़ा मंदिर स्टेशन पहुंचे | हम सभी नौजवान मित्रों ने अपने परिवारों को प्रतिक्षालय में बैठाया एवं स्वयं क्षेत्रीय जानकारी जैसे ठहरने तथा खाने पीने की व्यवस्था देखने स्टेशन परिसर से बाहर चले गए | स्टेशन से बाहर निकलने पर हमें नदी पर बना एक लकड़ी का झूलता हुआ पुल पार करना पड़ा, उसके बाद ही हम मुख्य सड़क पर पहुँच पाये | मुख्य सड़क पर कुछ ही आगे सवारी गाडियाँ खड़ी थीं, जिनसे हमने शहर के मुख्य बाज़ार में छोड़ने एवं किराए संबन्धित बात की | ऑटो सवारी गाडियाँ तय करने के बाद हम वापस अपने परिवारों को लेने स्टेशन पर आए |  स्टेशन पर सन्नाटा पसरा हुआ था, मानो रेलगाड़ी केवल हमें ही छोड़ने आयी हो |

सभी लोग सामान सहित मुख्य सड़क की ओर चल पड़े | जब लकड़ी का वही झूलता हुआ पुल आया तो सबकी साँसे अटक गयी | रात्री का समय था, चारों ओर अंधेरा छाया हुआ था एवं नदी से पानी की कल कल की आवाज आ रही थी | सभी ने साहस एवं एक अच्छा पर्यटक समूह होने का परिचय दिया और बड़े ही धैर्य से उस पुल को पार किया | फिर सभी लोग ऑटो सवारी गाड़ियों में बैठकर मुख्य बाज़ार स्थित एक धर्मशाला के लिए चल पड़े | कुछ ही देर में हम वहाँ पहुँच गए, परंतु सामान उतारने से पहले हमने वहाँ उपलब्धता जांच लेना उचित समझा | मैंने और मेरे साथी बलबीर सिंह ने बड़ी शीघ्रता से धर्मशाला के पूछताछ पटल पर दस्तक दी | वह धर्मशाला बहुत ही सुंदर थी | धर्मशाला में चारों ओर कमरे और बीचों बीच एक स्वच्छ तालाब था | हम यह जानकार बहुत निराश हुए कि वहाँ उपलब्धता नहीं थी | समय न गँवाते हुये हम तुरंत बाहर आये एवं उपलब्धता नहीं होने के बारे में अपने साथियों को सूचित किया | कुछ ही क्षणों में हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमें शहर के बीच स्थित मुख्य बस स्टैंड के नजदीक चलना चाहिए जहां बहुतायत में होटल एवं धर्मशालायेँ मौजूद हैं | मुख्य बस स्टैंड कि दूरी वहाँ से अधिक नहीं थी | परंतु सामान होने कि वजह से हम वहाँ पैदल नहीं जा सकते थे | हमने ऑटो सवारी गाड़ी चालकों से निवेदन किया कि वो हमें मुख्य बस स्टैंड के नजदीक पहुंचाएं, परंतु आपसी समझ एवं भाषा संबन्धित अंतर के कारण हमारे मित्र बलबीर सिंह का चालकों से एक सूक्षम विवाद उत्पन्न हो गया और उन्होने वहाँ जाने से मना कर दिया |

रात्री के 09:00 बज रहे थे, सभी लोग दिनभर की यात्रा से थक चुके थे एवं बच्चे परेशान थे, अतः स्थिति को भाँपते हुए जैसे भीड़ मे से अभिनेता निकलता है उसी प्रकार हमारे एक मित्र सतेन्द्र सिंह उर्फ़्फ़ गप्पू निकले एवं मोर्चा संभाला | कुछ ही क्षणों में हमारे मित्र ने अपनी सभ्यता और वाक्पटुता से उस विवाद को सुलझा दिया, जिससे चालक पुनः चलने के लिए तैयार हो गए |

कुछ ही देर बाद हम मुख्य बाज़ार में पहुँच चुके थे | रात्री के 10:00 बजने को थे इसलिए सभी दुकानें आदि बंद हो चुकी थीं, केवल होटल और खाने पीने की दुकानें ही खुली थीं | हमारी प्राथमिकता उस समय केवल यह थी कि जल्दी से होटल तय किया जाय एवं खाना पीना खाकर विश्राम किया जाय | हमारी सदस्य संख्या कुल 24 थी अतः एक ही होटल में ठहरना संभव नहीं था | एक तो कांगड़ा छोटा शहर, उपर से पीक सीज़न में हमारी यात्रा, सभी होटलों में केवल कुछ ही कमरे शेष थे |

त्वरित प्रयास से हमने दो अलग अलग होटलों में कमरे तय किए एवं बिना देर किए हमने अपने सामान कमरों में व्यवस्थित कर दिये | मैं, मेरे मित्र भारत भूषण एवं सतेन्द्र सिंह एक होटल में तथा बलबीर सिंह एवं अनुपम शर्मा जी दूसरे होटल में ठहरे | दोनों होटलों कि दूरी केवल कुछ कदमों की ही थी | हमें होटल प्रबन्धक ने बताया की 11 बजे तक सभी खाने पीने की दुकाने, रेस्तरां आदि बंद हो जाएंगे | हमने झूठमूठ की तरोताजगी महसूस करने के लिए हाथ मुंह धोये एवं भोजन के लिए सड़क उस पार स्थित भोजनालय में पहुँच गए | मैंने झूठ मूठ इसलिए कहा क्योंकि उस समय हमें तरोताजगी नहीं, बल्कि केवल भोजन के बाद की निद्रा दिखलाई दे रही थी | भोजन पर अप्रत्याशित जीत हासिल करने के उपरांत हम वापस अपने कमरों मे पहुँच चुके थे |

पाठकों उपरोक्त विवरण मैंने क्रम से लिखा है, और रेलगाड़ी से उतरने से लेकर अब तक करीब दो घंटे बीत चुके थे, किन्तु विश्वास कीजिये कि कांगड़ा रेलवे स्टेशन से उतरने से लेकर अंतिम सोने के समय तक सारे कार्य हमनें विधुत कि गति से किए |                        

19 जून 2014, अर्थात हमारी यात्रा का प्रथम दिन कुछ खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ अंतिम पड़ाव पर था | सभी लोग सो चुके थे | मैंने अपनी ई-विवरणिका निकाली और दिनभर के घटनाक्रम तथा पूंजीव्यय को संक्षिप्त रूप से उसमें अंकित कर दिया | रात्री 12 बज चुके थे, मैं अपने कमरे से बाहर आया, आकार में ठीक आधे चंद्रमा को देखकर एक सुकून भरी सांस ली और ईश्वर को धन्यवाद देते हुए वापस अपने कमरे में चला गया |  

 

20 जून 2014, तिथि अष्टमी, कृष्ण पक्ष, मास आषाढ़, विक्रम संवत 2071

कांगड़ा हिमाचल प्रदेश का एक जिला मुख्यालय है और यहाँ का सबसे बड़ा जिला भी | यात्रा के कार्यक्रमानुसार 20 जून को हमें कांगड़ा स्थित कुछ प्रमुख देवी मंदिरों में दर्शन हेतु जाना था |

यह शुक्रवार का दिन था | सभी लोग प्रातः जल्दी उठाए गए, और यह दुर्गम कार्य सभी परिवारों के जिम्मेदार साथियों ने किया | सभी दैनिक कार्यों से निव्रत होकर हम सभी साथी मिले एवं दिनभर की भावी योजना पर चर्चा की | सुबह 7 बजे के आस पास सभी परिवार तैयार होकर होटल के पूछताछ पटल के समीप एकत्रित हो गए | हमने सबसे पहले माता ब्रजेश्वरी देवी अर्थात कांगड़ा देवी मंदिर जाने का कार्यक्रम बनाया | माता का यह मंदिर वहाँ से कुछ ही दूरी पर था | हम सभी लोग पैदल पैदल मंदिर की ओर चल पड़े | मंदिर मे पहुँच कर सभी ने माता के दिव्य स्वरूप के दर्शन किए | इतिहासकारों ने यह उल्लेख किया है कि यह मंदिर मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा कई बार लूटा गया | यह मंदिर माता के शक्ति पीठों में से एक है | ऐसा शास्त्रों में कहा गया है कि यहाँ भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से कटकर माता सती का बायाँ वछ गिरा था और तभी से यह मंदिर शक्ति पीठ के रूप में देश विदेश में विख्यात है |        

इस मंदिर में अधिकतर श्रद्धालु पीले वस्त्रों में दिखलाई दिये जो कि एक कौतूहल का विषय था, स्थानीय लोगों से जानकारी करने पर पता चला कि लोगों कि मनौतियाँ पूरी होने पर लोग पीले वस्त्रों में माँ के दर्शन करने यहाँ आते है | इस मंदिर में भंडारे कि पूर्ण व्यवस्था थी, मन ललच रहा था परंतु समयाभाव के कारण दिल पर पत्थर रखना पड़ा | दर्शन करने के पश्चात हमारा कार्यक्रम नाश्ता करना एवं आगे की यात्रा के लिए निकलना था | मंदिर के प्रथम द्वार पर ही जो कि मुख्य सड़क पर है, दो खाने पीने कि दुकानें थीं | हम वहाँ पहुँच कर रुक गए और यह चयन करने लगे कि किस दुकान में नाश्ता करें | एक दुकान में बहुत भीड़ थी एवं दूसरी एकदम खाली | खाली वाली दुकान में एक महिला थी जो उस दुकान का संचालन कर रही थी | वह हमारे समूह कि ओर उम्मीद भरी नज़रों से देख रही थी, अतः हमने उसी दुकान में जाने का निश्चय किया | हमने वहाँ आलू के पराँठे और छोले का आनंद लिया | नाश्ता करते समय चूंकि पराँठे बनाने वाली महिला एक एवं खाने वाले अनेक थे, अतः कुछ इंतज़ार भी करना पड़ा | इस इंतज़ार के मध्य, पुरुष श्रेष्ठ या महिला श्रेष्ठ जैसे अति गंभीर विषय पर समूह में कुछ वाद विवाद भी हुआ जिसमें अंततः जैसा सदियों से होता आया है, महिलाएं ही विजयी हुई | आखिर बातों मे भला कोई महिलाओं को हरा सका है | यहाँ मेरे, भारत भूषण जी, एवं सतेन्द्र जी के परिवार मौजूद थे, वहीं अनुपम शर्मा जी, तथा बलबीर सिंह जी के परिवार माता के दर्शन एवं नाश्ता करने के बाद हमसे मिले |

नाश्ते का आनंद लेने के बाद महिलाएं और बच्चे होटल चले गए जबकि हम सभी साथी बस स्टैंड पहुंचे जहां से हमें आगे की यात्रा के लिए निजी वाहनों की व्यवस्था करनी थी | वहाँ हमने दो गाडियाँ, टेम्पो ट्रेवलर एवं टाटा विंगर बुक की और निर्धारित किया कि वह कांगड़ा मण्डल के अन्य प्रमुख मंदिरों के दर्शन करा कर उसी दिन शाम तक हमें वापस कांगड़ा स्थित हमारे होटल पर छोड़े | वाहन तय करने के पश्चात हम वापस होटल आये और कुछ ही समय में हम सभी तैयार होकर होटल के पूछताछ पटल के समीप एकत्रित हो गए | हमनें वाहन चालकों को फोन कर गाडियाँ वहीं मंगाई एवं चल पड़े अन्य मंदिरों के दर्शन हेतु |

यात्रा कार्यक्रमानुसार हमें पहले श्री बंगलामुखी माता मंदिर जाना था, वहाँ से माता चिंतपूर्णि और अंत में माता ज्वालमुखी होते हुए वापस कांगड़ा लौटना था | माँ के जयकारे के साथ हमारी यात्रा शुरू हो चुकी थी | कांगड़ा से करीब 24 किलोमीटर दूर माता बंगलामुखी का भव्य मंदिर है | करीब 40 मिनट की यात्रा के बाद हम श्री बंगलामुखी मंदिर पहुँच गये | सड़क के दाहिनी ओर कुछ सीढ़ियाँ उतरने के बाद यह मंदिर है | हम सभी ने वहाँ माता के दिव्य स्वरूप के दर्शन किये | मंदिर में भीड़ नहीं थी एवं साफ सफाई की उत्तम व्यवस्था थी | वहाँ भोजन और चाय की भी निशुल्क व्यवस्था थी | समयाभाव के कारण भोजन तो नहीं परंतु चाय एवं लड्डुओं का हम सभी ने आनंद लिया | मंदिर से सटा हुआ ही एक आधुनिक डिपार्टमेंटल स्टोर और रेस्तरां भी वहाँ मौजूद था | करीब आधे घंटे वहाँ बिताने के बाद हम माता चिंतपूर्णि के दर्शनों हेतु आगे बढ़ चले | 

 

माता चिंतपूर्णि मंदिर हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले मेँ स्थित है | यह मंदिर  माता के 51 शक्तिपीठों में से एक है | यहाँ भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से कटकर माता के चरण गिरे थे | इस मंदिर को छिन्नमस्ता के नाम से भी जाना जाता है | करीब 1 घंटे की यात्रा के बाद हम माता चिंतपूर्णि मंदिर पहुँचे | दोपहर हो चली थी, भगवान भास्कर ठीक सर के ऊपर आ चुके थे | अपनी अपनी गाड़ियों से जब हम उतरे उस समय गर्मी अपने शीर्ष पर थी | ऐसा लगा मानो यहीं बैठ जाएँ और आगे न बढ़ें, पर माता का बुलावा था जाना तो पड़ता ही | दोपहर होने के कारण भीड़ न के बराबर थी इसलिए माता के दर्शन भली भांति अच्छी तरह से हुए | मंदिर वातावरण की शीतलता कहें या माता का चमत्कार कुछ भी हो परंतु दर्शन के बाद सारी थकावट व गर्मी का एहसास जाने कहाँ चला गया, ऐसा लगा जैसे अभी-अभी तो यात्रा शुरू की है | सुबह का नाश्ता अब तक अपनी समस्त ऊर्जा उत्सर्जित कर चुका था एवं अब नए ऊर्जा भंडार मेरा मतलब भोजन की आवश्यकता थी | परंतु समय कम होने के कारण हम सभी को पाश्चात्य भोजन संस्कृति अर्थात ठंडा पेय, आइस्क्रीम, नमकीन आदि-आदि त्वरित भोजन पर निर्भर रहना पड़ा | इन्ही माध्यमों से ऊर्जा संचित करते हुए हम माता ज्वालामुखी के दर्शनों हेतु आगे बढ़ चले थे |

माँ ज्वालामुखी मंदिर की दूरी चिंतपूर्णि मंदिर से करीब 32 किo मीo थी | जब हम माता ज्वालामुखी मंदिर पहुंचे सांझ हो चली थी |

माँ ज्वालामुखी मंदिर भी माता के 51 शक्तिपीठों मेँ से एक है | ऐसा शास्त्रों मेँ उल्लेख है की यहाँ माता की जिव्हा गिरी थी | माँ ज्वालादेवी मंदिर मेँ अनंत समय से प्राक्रतिक रूप से नौ ज्वालाएँ जल रही हैं | माँ ज्वालामुखी मंदिर हम सभी के लिए अन्य सभी मंदिरों कि तुलना में कौतुहल का विषय था | क्योंकि शायद पहली बार दर्शन किसी मूर्ति या पिंड के न होकर पहाड से निकलने वाली स्वतः ज्वाला मात्र के थे | यह द्रश्य अचंभित करने वाला एवं शांति और सुकून देने वाला था |

पाठकों यहाँ किए गए दर्शनों कि अनुभूति शायद आप सभी के जीवन में किए गए अन्य मंदिर दर्शनों कि अनुभूति से श्रेष्ठ रही होगी, ऐसा मेरा मानना है |

यह मंदिर हमारी आज की यात्रा का अंतिम स्थान था एवं अब हमें वापस कांगड़ा स्थित अपने होटल पहुँचना था | आगे बढ़ने से पहले एक छोटी सी घटना बताना आवश्यक है जिससे यात्रा व्रतांत की प्रमाणिकता जीवंत बनी रहे | मंदिर प्रांगण से निकलते ही बहुत सारी दुकानें थीं जहां विभिन्न प्रकार के सामान बिक रहे थे | उन्हीं में से एक दुकान पर बच्चों के खिलौने एवं ढेर सारी टोपियाँ बिक रही थीं | हमारा समूह वहाँ रुका एवं सभी लोग कुछ न कुछ देखने लगे इतने में समूह के एक बच्चे आकाश पांडे ने टोपियों वाले बांस को हाथ लगाया जिससे बांस में टंगी सारी टोपियाँ नीचे जमीन पर आ गिरीं और वह स्वयं तो नाली में गिरते-गिरते बचा | दुकानदार का पारा चढ़ गया, परंतु दुकानदार समूह से डर गया और हम दुकानदार से | कुल मिलाकर बालक की फटकार लगाते हुए हम आगे बढ़ गए और दुकानदार बुदबुदाते हुए टोपियाँ बीनने लगा |

अपनी-अपनी गाड़ियों में बैठकर सभी लोग प्रसन्नता पूर्वक कांगड़ा की ओर बढ़ चले थे | परंतु इस प्रसन्नता के बीच कथित चौबेजी अर्थात मेरे माथे पर कुछ लकीरें उभर आयीं थीं, वजह थी अपने पुत्र के प्रथम जन्मदिवस जो कि उसी दिन था, पर समूह के सदस्यों द्वारा विशेष आयोजन कि मांग |

पाठकों यह लकीरें परेशानी नहीं बल्कि प्रसन्नता का प्रतीक थीं क्योंकि प्रथम जन्मदिवस पर माता के ऐसे दिव्य स्वरूपों के दर्शन भाग्यशालीयों को ही मिलते हैं | एक माता पिता के रूप में हम अत्यंत प्रसन्न थे | सपत्निक मेरी ओर से समूह के आप सभी सदस्यों को हृदय से धन्यवाद, क्योंकि आप सभी ने हमारे पुत्र को अपने आशीर्वाद से अनुग्रहित किया |

शाम को  6 बजे से 7 बजे का समय रहा होगा जब हम वापस कांगड़ा पहुंचे | दिनभर की निरंतर चलायमान यात्रा के कारण सभी लोग थक चुके थे | समूह के सभी सदस्यों ने अपने-अपने कमरों में थोड़ा विश्राम किया और इसके बाद रात्री भोजन की योजना बनाई जाने लगी | चूंकि दिन में भोजन नहीं किया था इसलिए सभी लोग भूखे थे | एक एक कर सभी लोग उसी भोजनालय में एकत्रित हुए जहां हमने पिछली रात्री को भोजन किया था | दिन भर की यात्रा पर चर्चा करते हुए हम सभी ने वहाँ भोजन किया और वापस अपने-अपने होटल की ओर चल पड़े | जाने से पहले सभी सदस्यों नें चौबेजी के पुत्र को पुनः आशीर्वाद व उपहारों से अनुग्रहित किया | यहाँ यह बताना आवश्यक है कि उसी दिन हमारे मित्र अनुपम शर्मा जी कि पत्नी श्रीमती शशि जी का भी जन्मदिवस था, अतः हम सभी ने ईश्वर से उनके उज्ज्वल भविष्य कि कामना की | चूंकि वह और उनकी माता जी यात्रा से थक चुके थे इसलिए वह दोनों लोग वहाँ उपस्थित नहीं थे, और उन्होने अपना भोजन होटल में ही किया |  

ईश्वर की असीम कृपा से हमारी आज की यात्रा निर्विघ्न रूप से पूरी हो चुकी थी | सभी लोग अपने-अपने कमरों में विश्राम कर रहे थे | मध्य रात्री करीब थी, मैंने पिछले दिन की भांति अपनी ई-विवरणिका निकाली और दिनभर के घटनाक्रम और पूंजी व्यय को उसमें अंकित कर दिया | ईश्वर को पुनः धन्यवाद देते हुए मैं भी धीरे-धीरे नींद के समंदर में उतर गया |

 

 

21, जून 2014, तिथि नवमी, कृष्ण पक्ष, मास आषाढ़, विक्रम संवत 2071   

आज के कार्यक्रमानुसार हमें माता चामुंडा देवी और बाबा बैजनाथ धाम के दर्शन करने थे, किन्तु हमनें सुबह ही कार्यक्रम में कुछ बदलाव किया और धर्मशाला होते हुए मैकलोडगंज जाने का निर्णय लिया |

सुबह सवेरे जल्दी तैयार होकर हम सभी ने माता ब्रजेश्वरी देवी मंदिर के पुनः दर्शन किए क्योंकि अब कांगड़ा छोड़ धर्मशाला की ओर बढ़ने का समय था | यहाँ यह बताना आवश्यक है कि जब हम पुनः दर्शन कर वापस लौट रहे थे तो नाश्ते कि वह दुकान जहां पिछले दिन हमने नाश्ता किया था बंद थी, जिससे हम थोड़ा निराश होकर वापस होटल कि ओर बढ़ गए थे | होटल से थोड़ा ही पहले सड़क किनारे उस दुकान वाली महिला से भेंट हो गयी वह अपनी बिटिया को स्कूल छोड़ने जा रही थी | उसने थोड़ी ही देर में दुकान खोलने का आश्वासन दिया किन्तु समयाभाव के कारण हम वहाँ पुनः नहीं जा पाये |

सुबह के करीब 9 बजे तक हम सभी कांगड़ा के मुख्य बस स्टैंड पर पहुँच चुके थे | कांगड़ा से धर्मशाला कि दूरी करीब 35 किलोमीटर थी | कुछ ही क्षणों में हमारा समूह हिमाचल प्रदेश सड़क परिवहन कि बस से धर्मशाला कि ओर बढ़ चला था | कांगड़ा शहर से निकलते ही बर्फ के सफ़ेद पहाड़ दिखना शुरू हो गए थे | करीब 1 घंटे कि यात्रा के बाद हम धर्मशाला स्थित मुख्य बस स्टैंड पहुँच गए थे | धर्मशाला से मैकलोडगंज कि दूरी 10 किo मीo है | मैकलोडगंज कि स्थिति के बारे में हमें अत्यधिक जानकारी नहीं थी | अतः हमने परिवार के सदस्यों को वहीं धर्मशाला बस स्टैंड पर छोड़ा और बस द्वारा मैकलोडगंज के लिए चल दिये | पारिवारिक सुरक्षा हेतु सतेन्द्र जी को वहीं धर्मशाला बस स्टैंड पर ही समूह के साथ रोका गया था | धर्मशाला से मैकलोडगंज के बीच के अधिकतम क्षेत्र में भारतीय सेना कि छावनी बनी हुई थी | धर्मशाला से ज्यों-ज्यों हम उपर की ओर बढ़ रहे थे तापमान में गिरावट हो रही थी जिसे हम महसूस कर पा रहे थे  | करीब आधे घंटे में हम मैकलोडगंज पहुँच गए थे |

मैकलोडगंज की स्थिति अन्य भारतीय शहरों या कस्बों की तरह न होकर किसी यूरोपियन शहर की भांति प्रतीत हो रही थी | चूंकि वह शनिवार का दिन था अतः ऐसा लग रहा था कि पूरा पंजाब व हिमाचल प्रदेश विदेशी आगंतुकों सहित मैकलोडगंज में उमड़ पड़ा हो | मैकलोडगंज चूंकि एक बड़े पठार पर स्थित था अतः वाहनों का काफिला दूर से ही सड़क पर दिखाई दे रहा था | करीब 1 किलोमीटर पहले बस से उतर कर हमें पैदल ही मैकलोडगंज पहुँचना पड़ा |

वहाँ पहुँचकर हमारी प्राथमिकता सबसे पहले यह थी कि रुकने की व्यवस्था की जाए एवं तब पूरे समूह को धर्मशाला से बुलाया जाए | सप्ताहांत का दिन होने की वजह से होटलों के कमरे अत्यंत महंगे थे | ज्यादातर होटलों में जगह ही नहीं थी | कुछ समय प्रयास के बाद बलबीर जी एवं अनुपम जी अपने लिए होटल की व्यवस्था कर पाने में सफल रहे | समूह बड़ा होने के कारण एक होटल मे रुक पाना असंभव सा था | मैं और भारत भूषण  जी होटल खोजने के परिपेक्ष्य में पूरे मैकलोडगंज की परिक्रमा लगाने में सफल हो गए थे, किन्तु कई घंटे बीत जाने के बाद भी हम रुकने की व्यवस्था नहीं कर पाये थे | ज्यादातर होटलों में जगह नहीं थी एवं जहां थी वहाँ पाँच सितारा का खर्च था जिसे हम वहन कर पाने में असमर्थ थे | दोपहर ढल चुकी थी अतः पूरे समूह को मैकलोडगंज आने के लिए सूचित कर दिया गया था | वो लोग कुछ ही समय में वहाँ पहुँचने वाले थे |

सांझ की प्रथम पहर शुरू होने को थी मैं और भारत भूषण जी परेशान थे | अंततोगत्वा हम एक होटल बुक कर पाने में सफल रहे | वह होटल हमारी अपेक्षाओं से अधिक सुंदर था | ऐसा लग रहा था जैसे सारे दिन की दौड़ भाग सिर्फ इसीलिए थी | थोड़ी ही देर में हमारे परिवार भी वहाँ आ पहुंचे थे | कमरे की खिड़की खोलने पर जब सामने बर्फ का पहाड़ देखा तो सारे दिन की थकावट जाने कहाँ गायब हो गयी | सांझ हो चली थी सभी परिवार अपने-अपने कमरों में व्यवस्थित हो चुके थे | बलबीर जी एवं अनुपम जी का होटल हमसे चंद कदमों की दूरी पर ही था |

मैकलोडगंज भ्रमण का कार्यक्रम अगले दिन का बनाया गया | कुछ घंटे विश्राम करने के बाद हमनें मुख्य बाज़ार स्थित एक उत्तर भारतीय व्यंजनों वाले रेस्तरां का चयन किया और रात्री भोजन का आनंद वहीं लिया | रात्री को वहाँ का तापमान कम था और हल्की ठंड लग रही थी | भोजनोपरांत हम सभी अपने-अपने कमरों मे पहुँच चुके थे |

मैकलोडगंज एक ऊंचा पठार था, जो करीब दो तरफ से ऊंचे पहाड़ों से घिरा था जो इसे घाटी बना रहे थे | मैकलोडगंज में एक चीज़ विस्मय करने वाली थी वह यह थी कि भारत में होते हुए भी वहाँ की संस्कृति कहीं से भी भारतीय नहीं लग रही थी | शाम होते ही उस छोटे से कस्बे में माहौल रंगीन हो जाता था | छोटे-छोटे होटलों व रेस्तरां से वह कस्बा गुलजार था, ऐसा जान पड़ता था जैसे पूरे मैकलोडगंज में तिब्बतियों का कब्जा हो | सड़कों पर देसी विदेशी जोड़ों का आलिंगंबद्ध हो चलना बड़ी आम सी बात थी | शराब की दुकानें बहुतायत में थीं | बौद्ध धर्म गुरु दलाइलामा का प्रमुख मंदिर वहाँ मुख्य बाज़ार में स्थित था | बौद्ध धर्म के अनुयायी वहाँ बहुतायत में थे | बौद्ध धर्म अहिंसा के प्रति कटिबद्ध है, किन्तु वहाँ जगह-जगह मांसाहारी व्यंजनों के रेस्तरां यह आभास कराने के लिए पर्याप्त थे कि बौद्ध धर्म में अहिंसा व पशु प्रेम का पाठ यहाँ के लोगों ने अपने जीवन में न उतारकर केवल पुस्तकों तक सीमित कर रखा है | पूरी तरह यूरोपियन संस्कृति में ढला यह शहर यह बोध करा रहा था कि भारत का अभिन्न अंग होते हुए भी यह भारत का हिस्सा नहीं है |

रात्री हो चली थी सभी लोग विश्राम कर रहे थे, मैंने प्रतिदिन कि भांति अपनी ई-विवरणिका तैयार कि और जून कि गर्मी में ठंड को महसूस करते हुए अपने कंबल को सर के ऊपर खींच लिया |

 

22 जून, 2014 तिथि दशमी, कृष्ण पक्ष, मास आषाढ़, विक्रम संवत 2071

यह रविवार का दिन था | सभी लोग देर सुबह तक सोने का आनंद लेते रहे | इस दिन हमें मैकलोडगंज का भ्रमण करना था | सभी लोग तैयार होकर मुख्य बाज़ार स्थित एक स्थान पर एकत्रित हुए और अपनी-अपनी सुविधा और स्वादानुसार चाय पानी तथा नाश्ते का आनंद लिया |

मैकलोडगंज से करीब 1 किलोमीटर कि ऊंचाई पर बहुत ही रमणीय स्थान था जिसका नाम था “ भागसुनाग ” | वस्तुतः यह एक शिव मंदिर था | हम सभी लोग पैदल-पैदल उस स्थान कि ओर चल पड़े | यह मंदिर एक पर्वत कि तलहटी में बसा था | हम लोगों ने मंदिर में दर्शन किए और कुछ घंटे वहीं बिताए |

 मंदिर से करीब ही एक ठंडे पानी कि धारा बह रही थी जो उपर पहाड़ कि ओर से आ रही थी | हम सभी लोग उस दिशा कि ओर चल पड़े जहां से वह धारा आ रही थी | कुछ ऊंचाई पर जाने के बाद हम सड़क मार्ग को छोड़कर एक पगडंडी के सहारे उस घाटी में उतर गए जहां वह पानी कि धारा तीव्र वेग के साथ बह रही थी | वहाँ बड़े-बड़े काले रंग के पत्थर पड़े हुए थे, उन पत्थरों के बीच से ठंडा पानी बह रहा था | हम लोगों के अतिरिक्त वहाँ अनेक पर्यटक मौजूद थे | यह वह स्थान था जहां से शायद ही किसी का जाने का मन हो | हम लोगों ने वहाँ कई घंटे बिताए | कोई किसी पत्थर पर बैठा था तो कोई किसी पत्थर पर | सभी ने अपने पैर ठंडे पानी में लटका रखे थे | अबतक कि यात्रा का शायद यह सबसे खूबसूरत पर्यटक स्थल था | पूरी दोपहर वहीं बिताने के बाद हम लोग वापस मैकलोडगंज कि ओर चल पड़े थे |

घूमने कि लालसा में हम भूल ही गए थे कि हमें भूख लग आयी थी, अतः वहीं भागसुनाग में हमने चाय ओर पराँठे आचार का लुत्फ उठाया | शाम के करीब 4-5 बजे होंगे जब हम लोग थके हुये मैकलोडगंज के मुख्य चौराहे पर खड़े थे | हम थक चुके हैं !!! अब हम नड्डी नहीं जाएंगे ऐसा स्वर हमारे बीच में किसी सदस्य  का आया | नड्डी वहाँ से करीब 2 किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थित एक जगह थी जहां से बर्फ के ऊंचे पहाड़ और घाटी का एक सुखद दृश्य दिखलाई पड़ता था | वह जगह सूर्यास्त देखने के लिए बड़ी प्रसिद्ध थी | आधे सदस्यों के न चाहते हुए भी हमने नड्डी जाने का साहसिक फैसला लिया | हमने तुरंत वहाँ से 2 कारें बुक कीं और आधे घंटे बाद हम सभी वहाँ सूर्यास्त का आनंद ले रहे थे | बड़ा ही आकर्षण था उस जगह में | करीब 1 घंटा वहाँ बिताने के बाद हम वापस मैकलोडगंज आ चुके थे | शाम के करीब 6-7 बजे होंगे जब हम सभी लोग अपने-अपने कमरों में विश्राम कर रहे थे | जो थकावट को अपनी दिनचर्या का हिस्सा नहीं मानते थे वो दिनभर कि यात्रा पर चर्चा में व्यस्त थे |

रात हो आई थी, हम सभी लोगों ने मुख्य बाज़ार स्थित एक रेस्तरां में भोजन किया | यह वही रेस्तरां था जहां हमने पिछली रात को भोजन किया था |  यह अपनी तरह का एक अलग ही रेस्तरां था, जहां बीच में मुनीमों जैसी टेबल और नीचे जमीन पर बैठने कि व्यवस्था थी | यहाँ की  पंजाबी कढ़ी बहुत ही स्वादिष्ट थी |

मैकलोडगंज का भ्रमण सफलतापूर्वक पूरा कर लिया गया था | आज का दिन बहुत ही थकावट वाला व रोमांचकारी था | इन्हीं रोमांचकारी पलों को देखते व सोचते हुए मेरी आँखें बोझिल हो चली थीं, और अंततः आँखों ने अपना अंतिम पड़ाव ढूंढ लिया था |

23 जून, 2014 तिथि एकादशी, कृष्ण पक्ष, मास आषाढ़, विक्रम संवत 2071

यह सोमवार का दिन था | आज के कार्यक्रम की चर्चा पिछले दिन की जा चुकी थी, अतः आज हमें धर्मशाला और माता चामुंडा देवी मंदिर  घूमते हुए बाबा बैजनाथ धाम पहुँचना था | हम सभी लोग प्रातः तैयार हो कर मुख्य बाज़ार में पहुँच चुके थे | मैं, भारत जी एवं बलबीर जी वाहनों की व्यवस्था हेतु मुख्य वाहन स्टैंड की ओर चले गए और अन्य सदस्य नाश्ता एवं जलपान में व्यस्त हो गए | कुछ ही देर में हमने दो वाहनों, टाटा सूमों एवं टाटा विंगर की व्यवस्था कर ली और चल पड़े अपने अगले पड़ाव की ओर |

हमारा आज का पहला पड़ाव था पालमपुर के चाय बागान | कुछ ही देर की यात्रा के बाद हम लोग पालमपुर पहुँच गए | यह कांगड़ा जिले का ही एक पहाड़ी शहर है और धर्मशाला से इसकी दूरी करीब 35 किलोमीटर है | यह शहर अपने सुंदर द्रश्यों, बर्फ से लदे  पहाड़ों एवं चाय बागानों के लिए प्रसिद्ध है | इस शहर को उत्तर पश्चिम भारत की चाय राजधानी भी कहा जाता है | हम लोगों में से कुछ सदस्यों का यह पहला मौका था जब वो चाय के बागानों में विचरण कर रहे थे | चाय बागानों का प्राक्रतिक सौन्दर्य देखते ही बनता था | हमनें भी इस आशा में थोड़ी चाय की हरी पत्तियाँ तोड़ कर जेब में रख लीं कि अगर वो घर पर सही सलामत पहुँचीं तो प्राक्रतिक चाय का आनंद लिया जाएगा | इन चाय के बागानों मे भ्रमण करते समय मुझे जून 2012 का दक्षिण भारत भ्रमण याद आ गया जिसमें हममें से अधिकतर सदस्यों ने ऊटी के चाय बागानों एवं एक चाय उत्पादक कारखाने का भ्रमण किया था |

सचमुच यह बड़ा ही आनंदायक होता है, जब आप विभिन्न स्थानों के भ्रमण के पश्चात वहाँ कि संस्कृति, व्यक्तियों, मौसम या किसी अन्य चीज कि तुलना करते हैं | प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर उस जगह को न चाहते हुए भी हमें छोड़ना पड़ा और हम धर्मशाला के अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम की ओर तेजी से आगे बढ़ चले थे |

इससे पहले टेलीविजन पर देखा था यह स्टेडियम, और आज प्रत्यक्ष सामने देखकर सभी अति प्रसन्न थे | विश्व मेँ सबसे ऊंचाई पर बना हुआ यह स्टेडियम कांगड़ा घाटी के ऊपरी क्षेत्र मेँ स्थित है |  करीब आधा घंटा वहाँ बिताने के बाद हमारी लघु फौज माता चामुंडा देवी के दर्शनों हेतु निकल पड़ी थी |

उस दिन का मौसम ज्यादा गरम नहीं था बल्कि हवा अपने अंदर थोड़ी ठंडक समेटे हुए थी | हमनें रास्ते में पड़ने वाले एक अन्य महत्वपूर्ण स्थान का भी भ्रमण किया जो तिब्बतन कला संस्कृति का एक अध्ययन केंद्र था | इस अध्ययन केंद्र का नाम था “नारबूलिंगका इंस्टीट्यूट ऑफ स्टडीज”

करीब दोपहर हो चली थी जब हम माँ चामुंडा देवी मंदिर पहुंचे | यह मंदिर कांगड़ा जिले में स्थित है धर्मशाला से इसकी दूरी करीब 15 किलोमीटर है | यह मंदिर माता के 51 शक्तिपीठों में से एक है | ऐसा शास्त्रों में वर्णन है की यहाँ माता सती के चरण गिरे थे | यह मंदिर मुख्यतः माता काली को समर्पित है |

माता के सुखद एवं अभूतपूर्व दर्शन के पश्चात हम सभी ने मंदिर के पास स्थित एक दुकान में जलपान किया | जलपान या भोजन के समय हम उस चीज को ज्यादा महत्व देते जो वहाँ का प्रसिद्ध खानपान या व्यंजन होता ना कि वह जो हमारे अपने क्षेत्रों में मिलता है, और यही किसी अंजान क्षेत्र या संस्कृति को समझने का तरीका भी है | यहाँ से निकलने के पश्चात हमारा अंतिम पड़ाव था बैजनाथ पपरोला जो कि बाबा बैजनाथ धाम मंदिर के लिए जाना जाता है |

करीब 3 से 4 बजे का समय रहा होगा जब हम लोग बाबा बैजनाथ पहुंचे | बैजनाथ, हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले का एक कस्बा है और पालमपुर से इसकी दूरी लगभग 14 किलोमीटर एवं चामुंडा देवी मंदिर से लगभग 22 किलोमीटर है | मंदिर से निकट ही हमने अपने रहने की व्यवस्था की | अपने अपने गंतव्य स्थान पर जहां हमें रात्री विश्राम करना था सभी ने अपने समान आदि व्यवस्थित किए | भोजन आदि के पश्चात यह योजना बनाई गयी की आज सभी लोग बाबा बैजनाथ मंदिर में प्रतिदिन आयोजित होने वाली साँय कालीन आरती में शामिल होंगे, तदोपरांत सभी लोग क्षणिक विश्राम हेतु अपने कक्षों मे चले गए |

सांझ हो चली थी सभी लोग साँय कालीन आरती हेतु बाहर मुख्य सड़क पर एकत्रित हुए | मदिर केवल कुछ ही दूरी पर था, अतः हम पैदल ही मंदिर की ओर चल पड़े | उस छोटे से कस्बे से बर्फ के बड़े पहाड़ दिखलाई पड रहे थे | सांझ के उस पहर मे सूर्यदेव उन पहाड़ों के मध्य से आज की अपनी अंतिम उपस्थिति दर्ज करा रहे थे |

भगवान शिव का यह मंदिर स्थापत्य एवं वास्तु कला का एक बेजोड़ उदाहरण है | मंदिर में स्थित 8वीं शताब्दी के शिलालेखों से प्रमाणित होता है की तब से दो हज़ार वर्ष पहले भी यह मंदिर अस्तित्व में था | जिससे हम यह कह सकते है की यह पांडव कालीन मंदिर है |

मंदिर प्रांगड़ मे होने वाली प्रतिदिन की सांय कालीन आरती किसी उत्सव से कम न थी | स्थानीय वाद्य यंत्रों के साथ गायी जा रही आरती से वह  प्रांगड़ ही नहीं बल्कि पर्वतों के बीच का वह छोटा सा कस्बा भी गुंजायमान हो रहा था |  आरती की वह प्रक्रिया और कर्मकांड शायद ही मैंने कहीं और किसी मंदिर में देखी हो | पाठकों यदि सत्य कहूँ तो इस पूरे भ्रमण में यही वह जगह थी जहां असीम शांति और आनंद की अनुभूति हुयी |

भगवान शिव के इस मंदिर की भव्यता अवर्णनिय है | भगवान शिव यहाँ अर्धनारीश्वर शिव लिंग के रूप में विराजमान हैं | गर्भग्रह के ठीक सामने मुख्य द्वार के बाहर नंदी विराजमान हैं, जहां यह मान्यता है कि नंदी के कान में अपनी मनोकामना कहने से वह पूरी होती है |  भला ऐसा अवसर कौन छोड़ना चाहेगा, अतः हम सभी सदस्यों ने भगवान शिव के सामने स्थित नंदी के कान में अपनी-अपनी मनोकामना मांगीं | भव्य दर्शन और आरती के समापन के पश्चात हम सभी लोग अपने गंतव्य विश्राम स्थल की ओर बढ़ चले, परंतु उससे पहले एक अति महत्वपूर्ण कार्य अर्थात भोजन करना हम नहीं भूले थे | बैजनाथ का मौसम प्राय ठंडा था | सभी लोग अपने-अपने कक्षों में पहुँच चुके थे और आज का यह आध्यात्मिक यात्रा वाला दिन अपनी समाप्ति की ओर था |

मैंने वही प्रतिदिन का कार्य अर्थात दिनभर के रोमांच और घटनाक्रम को अपनी ई-विवरणिका मे दर्ज किया और भगवान शिव की उस धरा पर निद्रा की ओर बढ़ चला |

24 जून, 2014 तिथि द्वादशी, कृष्ण पक्ष, मास आषाढ़, विक्रम संवत 2071

यह मंगलवार का दिन था | आज के कार्यक्रम की चर्चा पिछली संध्या को ही की जा चुकी थी | आज के कार्यक्रमानुसार हमें शाम तक पठानकोट पहुँचना था | बैजनाथ धाम से निकलने से पहले हमने प्रातः एक बार पुनः भगवान शिव के दर्शन किए और तदोपरांत निकट ही स्थित रेल्वे स्टेशन बैजनाथ पपरोला पहुंचे | यहाँ से हम पुनः उसी छोटी ट्रेन में सवार हुए जिससे हम आगमन के समय पठानकोट से कांगड़ा पहुंचे थे |

हम अपनी सम्पूर्ण यात्रा के अंतिम छोर की ओर बढ़ रहे थे अतः बैजनाथ से पठानकोट की यह ट्रेन यात्रा बहुत कुछ थकान भरी रही | शाम होते होते हम सभी लोग पठानकोट जंक्शन पहुँच चुके थे | मंगलवार का यह दिन करीब करीब सफर करते हुए ही बिता था अतः सभी लोग अत्यंत थके हुए थे | मैंने, भारत जी एवं सत्येंद्र जी ने वहीं स्टेशन प्रांगण मे ही स्थित विश्रामालय में अपना रात्री निवास निश्चित किया जबकि बलबीर जी एवं अनुपम जी स्टेशन से बाहर स्थित एक विश्रामालय में रुके |

 

25 जून, 2014, तिथि त्र्योदशी, कृष्ण पक्ष, मास आषाढ़, विक्रम संवत 2071

यह बुधवार का दिन था | आज का दिन हमारी यात्रा का अंतिम दिन था, परंतु हमारे मित्र भारत जी एवं सतेन्द्र जी की यात्रा का एक अंश अभी भी शेष था | उपरोक्त दोनों मित्रों की यात्रा का अगला अंश था माता वैष्णो देवी जी के दर्शन एवं तदोपरांत अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर के दर्शन | अतः अपनी इस यात्रा हेतु ये दोनों मित्र पठानकोट जंक्शन स्टेशन पर ही रुके जहां से इनकी आगे की यात्रा निर्धारित थी | वहीं हम शेष मित्र पठानकोट छावनी स्टेशन पहुंचे जहां से हमारी यात्रा का अंतिम सफर शुरू होना था | हमारी रेलगाड़ी थी मालवा सुपरफास्ट एक्सप्रेस, जिसका निर्धारित समय था सुबह करीब 10:30 बजे |

 यह रेलगाड़ी हमें समय से मिली और इसी दिन रात्री करीब 11 बजे हम अपने गृह नगर आगरा पहुँचे | वहीं भारत जी एवं सतेन्द्र जी तीन दिन बाद अपने गृह नगर मऊ पहुंचे | 

आगरा रेलवे स्टेशन से अपने अपने घरों की ओर प्रस्थान से पूर्व ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे यह पूरा समूह ही एक परिवार था और वर्षों से साथ रह रहे परिवार एक दूसरे से बिछुड़ रहे थे | अंततः सभी लोगों ने समस्त यात्रा के सुखद अनुभव एवं निर्विघ्न संपूर्णता के लिए भगवान शिव और देवी माँ का आभार व्यक्त किया और अपने अपने घरों के लिए प्रस्थान किया |

 

यह यात्रा अत्यंत ज्ञान और अच्छे अनुभवों के साथ सम्पूर्ण हो चुकी थी | ईश्वर करे ऐसी यात्रा हम सभी मित्र बार बार करते रहें और ईश्वर तुल्य माता पिता की सेवा मे सदैव तत्पर रहें|

 

उस जगजन्नी आदि शक्ति माँ को प्रणाम..............

Comments

  1. एक अच्छा और आकर्षक लेख

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  2. Yaad taaza ho gayi aap key tour ki....bahut khub....👍🌷🙏🙏

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    1. धन्यवाद श्रीमान आपने अपना परिचय नहीं दिया |

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  3. धन्यवाद श्रीमान।

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